ऐतिहासिक >> समुद्र संगम समुद्र संगमभोला शंकर व्यास
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ऐतिहासिक उपन्यासों की प्रचलित परम्परा से अलग हटकर लिखा गया अत्यन्त रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
‘समुद्र संगम’ मुगल राजकुमार दाराशुकोह के गुरू प्रसिद्ध कवि पण्डितराज जगन्नाथ की आत्मकथा की शैली में उपन्यास है। मेरा लक्ष्य पण्डितराज की जबानी उनके युग की कहानी सुनाना है।
मध्य युग के मुगल बादशाह शाहजहाँ का शासनकाल भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग होते हुए भी विचित्र अन्तर्विरोधों का युग रहा है, दो विरोधी गुण-धर्म से समन्वित संस्कृतियों के परस्पर टकराव और उसे मिटाकर समन्वय करने के प्रयास का युग रहा है। यही कारण है कि वह युग ही इस उपन्यास का नायक बन बैठा है। दो विरोधी विचारधाराओं, दार्शनिक परम्पराओं, कलागत मान्यताओं, रीति-रिवाजों की परस्पर प्रतिस्पर्धिता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना मेरा ध्येय है। काश, इनके समन्वय के लिए जो प्रयास कवीन्द्राचार्य सरस्वती, सन्त मुल्लाशाह, बाबा लालदयाल, सरमद, दारा, जहाँआरा और पण्डितराज ने किया, वह सफल हो गया होता। पण्डितराज के शब्दों में "यह बूँद के बहाने समुद्र की कहानी है, क्योंकि बूँद की कथा समुद्र की कथा से अलग हो ही क्या सकती है।" इसीलिए शीर्षक रख दिया गया ‘समुद्र-संगम’, व्यक्ति और समाज का संगम, दो संस्कृतियों का संगम, और तकनीक के लिहाज से भी इसमें कई धाराओं की संगम मिल जायेगा। यह शीर्षक भी वही से मिला है। दारा ने भारतीय दर्शन और सूफी दर्शन का समन्वय कर एक ग्रन्थ लिखा है- ‘मज्ज-उल्-बह् रैन’, जिसका उसी के नाम से संस्कृत अनुवाद का हस्तलेख भी मिलता है- ‘समुद्र-संगम’। मेरा अनुमान है, यह अनुवाद दारा के नाम से उसके प्रिय मित्र एवं गुरु पण्डितराज जगन्नाथ की ही कलम का करिश्मा है।
पण्डितराज की संस्कृत गद्य शैली इस अनुवाद में खुद असलियत प्रकट कर देती है। पूरे युग को वाणी देने के कारण इस उपन्यास में आपको ऐसे चरित्र मिल जाएँगे, जो उस समय की राजनीति, दार्शनिक क्रान्ति, साहित्यिक अनुदान, संगीत और चित्रकला के क्षेत्र में हुए प्रयोगों के इतिहास से सम्बद्ध हैं। संस्कृत, फारसी और भाषा के उन कवियों और पण्डितों से भी आपकी मुलाकात यहाँ हो जाएगी, जो उस युग की चेतना को अपनी कविता और कृतियों द्वारा वाणी देते रहे हैं। इन सबको एक साथ जुटाने में मैंने इतिहास के साथ कल्पना का भी भरपूर इस्तेमाल किया है और एक उपन्यास लेखक को इतना हक तो हासिल होना ही चाहिए।
मध्य युग के मुगल बादशाह शाहजहाँ का शासनकाल भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग होते हुए भी विचित्र अन्तर्विरोधों का युग रहा है, दो विरोधी गुण-धर्म से समन्वित संस्कृतियों के परस्पर टकराव और उसे मिटाकर समन्वय करने के प्रयास का युग रहा है। यही कारण है कि वह युग ही इस उपन्यास का नायक बन बैठा है। दो विरोधी विचारधाराओं, दार्शनिक परम्पराओं, कलागत मान्यताओं, रीति-रिवाजों की परस्पर प्रतिस्पर्धिता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करना मेरा ध्येय है। काश, इनके समन्वय के लिए जो प्रयास कवीन्द्राचार्य सरस्वती, सन्त मुल्लाशाह, बाबा लालदयाल, सरमद, दारा, जहाँआरा और पण्डितराज ने किया, वह सफल हो गया होता। पण्डितराज के शब्दों में "यह बूँद के बहाने समुद्र की कहानी है, क्योंकि बूँद की कथा समुद्र की कथा से अलग हो ही क्या सकती है।" इसीलिए शीर्षक रख दिया गया ‘समुद्र-संगम’, व्यक्ति और समाज का संगम, दो संस्कृतियों का संगम, और तकनीक के लिहाज से भी इसमें कई धाराओं की संगम मिल जायेगा। यह शीर्षक भी वही से मिला है। दारा ने भारतीय दर्शन और सूफी दर्शन का समन्वय कर एक ग्रन्थ लिखा है- ‘मज्ज-उल्-बह् रैन’, जिसका उसी के नाम से संस्कृत अनुवाद का हस्तलेख भी मिलता है- ‘समुद्र-संगम’। मेरा अनुमान है, यह अनुवाद दारा के नाम से उसके प्रिय मित्र एवं गुरु पण्डितराज जगन्नाथ की ही कलम का करिश्मा है।
पण्डितराज की संस्कृत गद्य शैली इस अनुवाद में खुद असलियत प्रकट कर देती है। पूरे युग को वाणी देने के कारण इस उपन्यास में आपको ऐसे चरित्र मिल जाएँगे, जो उस समय की राजनीति, दार्शनिक क्रान्ति, साहित्यिक अनुदान, संगीत और चित्रकला के क्षेत्र में हुए प्रयोगों के इतिहास से सम्बद्ध हैं। संस्कृत, फारसी और भाषा के उन कवियों और पण्डितों से भी आपकी मुलाकात यहाँ हो जाएगी, जो उस युग की चेतना को अपनी कविता और कृतियों द्वारा वाणी देते रहे हैं। इन सबको एक साथ जुटाने में मैंने इतिहास के साथ कल्पना का भी भरपूर इस्तेमाल किया है और एक उपन्यास लेखक को इतना हक तो हासिल होना ही चाहिए।
भोला शंकर व्यास
मरा दिलअस्त कुफ्र आशना की चन्दीन वार,
ब काबह् बुर्दम् बाज़श बरहमन आबूर् दन ।।
ब काबह् बुर्दम् बाज़श बरहमन आबूर् दन ।।
चन्द्रभान बरहमन
(मेरे दिल का कुफ्र से इस कद्र लगाव है कि मैं इसे काबा ले गया, पर यह ब्राह्मण ही बना रहा।)
सल्तनत सहल अस्त खुदरा आश्नाएफ़क्र कुन,
क़तरह् ता दर् या तवानद शुद् चिरा गौहर शवद् ।।
क़तरह् ता दर् या तवानद शुद् चिरा गौहर शवद् ।।
दाराशुकोह
(सल्तनत पाना सहल है, तुम्हें गरीबों से आशनाई करानी चाहिए, अगर बूँद समन्दर बन सके, तो उसे मोती बनने की जरूरत ही क्या।)
लीलालुण्ठितशारदापुरमहासम्पद् भराणां पुरो,
विद्यासद्यविनिर्गलत्कणमुषो वल्गन्ति चेद् बालिशाः।
अद्य श्वः फणिनां शकुन्तशिशवो दन्तावलानां शशाः
सिंहानां च सुखेन मूर्द्धसु पदं धास्यन्ति शालावृकाः
विद्यासद्यविनिर्गलत्कणमुषो वल्गन्ति चेद् बालिशाः।
अद्य श्वः फणिनां शकुन्तशिशवो दन्तावलानां शशाः
सिंहानां च सुखेन मूर्द्धसु पदं धास्यन्ति शालावृकाः
पण्डितराज
(जिन लोगों ने मजे-मजे में सरस्वती के शहर को लूटकर विद्या की सम्पत्ति हासिल की है, उनके सामने अगर विद्या-केन्द्रों से बिखरे कणों को चुराने वाले मूर्ख अपने ज्ञान की डींग मारें, तो वह दिन दूर नहीं कि आज या कल फणिधर महासर्पों के फणों पर चिड़िया के बच्चे पंजा जमा देंगे, हाथियों के मस्तक पर खरगोश आ बैठेंगे और शेरों के सिर पर सियार सुखपूर्वक कदम रख देंगे।)
1
मुगल सम्राट जहाँगीर को गुजरे पाँच वर्ष हो गये थे। नये सम्राट के बदलते शासन के रंग-ढंग का पूरे भारतवर्ष को अहसास होने लगा। पुरानी शासन-नीति में रद्दो-बदल होती जा रही थी। शासक वर्ग प्रजा के शोषण के लिए अपने दन्तुर यन्त्र के पुर्जे और तेज करने में लगा था।
मजहबी संकीर्णता के ऊपर अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में चुप मुल्ला और क़ाजी फिर शरीअत की रूह से हुकूमत किये जाने पर जोर देने लगे। उनके प्रभाव में आ गये नये बादशाह को पिता और पितामह की नीति में परिवर्तन करना पड़ा। शाहजहाँ के पाँचवें राज्यवर्ष में जारी किये गये फर्मानों से फिर प्रजा पर वज्रपात होने लगा। देवालयों पर एक बार फिर शासन की गृध्र-दृष्टि जा पड़ी और जनता के धार्मिक क्रियाकलाप में यात्रा-कर का थोपा जाना विघ्न उपस्थित करने लगा। दो पीढ़ी से प्रतीक्षा करते सूबेदार, फौजदार और क़ाजियों को जैसे अपनी धर्मनिष्ठता प्रमाणित कर स्वर्ग को पाने का सरल उपाय मिल गया और फिर इन्सान-इन्सान के बीच द्वेष और घृणा की विषमयी सरिता बहकर उन्हें दो तटों की तरह गले मिलने से रोकने लगी। प्रजा उपेक्षित बन गयी। उनके उपासनागृहों के पूर्ण किये जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी। बादशाह ने फर्मान में सख्त हिदायत दी थी कि पुराने प्रतिष्ठित देवालयों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचायी जाए, पर कट्टर मजहबी अधिकारियों ने छिटपुट रूप में कुछ पुराने देवालयों को भी नहीं बख्शा। यद्यपि वाराणसी के प्राचीन देवालयों को इस शासनादेश से कोई हानि नहीं हुई पर नये देवालयों का निर्माण बन्द हो गया।...
मजहबी संकीर्णता के ऊपर अकबर और जहाँगीर के शासनकाल में चुप मुल्ला और क़ाजी फिर शरीअत की रूह से हुकूमत किये जाने पर जोर देने लगे। उनके प्रभाव में आ गये नये बादशाह को पिता और पितामह की नीति में परिवर्तन करना पड़ा। शाहजहाँ के पाँचवें राज्यवर्ष में जारी किये गये फर्मानों से फिर प्रजा पर वज्रपात होने लगा। देवालयों पर एक बार फिर शासन की गृध्र-दृष्टि जा पड़ी और जनता के धार्मिक क्रियाकलाप में यात्रा-कर का थोपा जाना विघ्न उपस्थित करने लगा। दो पीढ़ी से प्रतीक्षा करते सूबेदार, फौजदार और क़ाजियों को जैसे अपनी धर्मनिष्ठता प्रमाणित कर स्वर्ग को पाने का सरल उपाय मिल गया और फिर इन्सान-इन्सान के बीच द्वेष और घृणा की विषमयी सरिता बहकर उन्हें दो तटों की तरह गले मिलने से रोकने लगी। प्रजा उपेक्षित बन गयी। उनके उपासनागृहों के पूर्ण किये जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी। बादशाह ने फर्मान में सख्त हिदायत दी थी कि पुराने प्रतिष्ठित देवालयों को किसी प्रकार की हानि न पहुँचायी जाए, पर कट्टर मजहबी अधिकारियों ने छिटपुट रूप में कुछ पुराने देवालयों को भी नहीं बख्शा। यद्यपि वाराणसी के प्राचीन देवालयों को इस शासनादेश से कोई हानि नहीं हुई पर नये देवालयों का निर्माण बन्द हो गया।...
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